भारतीय संस्कृति एवं गौमाता

Submitted by Shanidham Gaushala on 13 Mar, 2019

भारतीय संस्कृति का विस्तार असीम है। विश्व में भारतीय संस्कृति ही एक ऐसी संस्कृति है जिसमें मानव मात्रा ही नहीं, सृष्टि की सारी वस्तुओं को पूजनीय व नमस्कृत्य माना गया है। वेदों में इसका विस्तृत वर्णन है। शुक्ल यजुर्वेदीय रुद्राष्टाध्यायी के पंचम व अष्टम अध्याय व अन्य ग्रंथों में भी इसके प्रमाण भरे पड़े हैं।

हमारे देश में गाय के महत्व को विशेष रूप से रेखांकित किया गया है। गायत्राी वेद माता है और गंगा भगवान विष्णु के चरण से उत्पन्न सर्वपवित्रा प्राणस्वरूपा है। गायत्राी को वाणी, गंगा को प्राण और गाय को मन माना गया है। मन इन्द्रियों का राजा है। कहा भी है - ”मन एव मनुष्याणां बन्धनं मोक्ष कारणम्“ अर्थात् मानव के सारे क्रिया-कलापों का कारण मन है। उसी प्रकार मनीषियों के अनुसार मानव को भौतिक व आध्यात्मिक दोनों क्षेत्रों में सफलता प्रदान करने वाली गाय होती है। मन की शुद्धि को अनिवार्य बताया गया है। मन की शुद्धि के बिना मानव की कोई भी क्रिया कल्याणकारी नहीं हो सकती। शास्त्रानुसार गाय मन की भी शुद्धि का मूल कारण है। मानव और पशु का अटूट संबंध है। गाय जैसी दिव्य पशु तो मानव जीवन की आधारशिला मानी गयी है। गाय और उसकी संतानों को वेदों में भी दिव्य पशु कहा गया है।

गो शब्देनोदिता पृथ्वी सा हि माता शरीरिणां।

शैशवे जननी माता पश्चात् पृथ्वी हि शस्यते।।

‘गो’ शब्द का दूसरा नाम पृथ्वी है, वही शरीधारियों की माता है। जन्म के बाद बाल्यावस्था पर्यन्त जन्मदात्राी मां पोषण करती है। उसके बाद पृथ्वी ही पोषण करने वाली माता कही

जाती है।

वेदों में गो का पर्यायवाची शब्द वृषभ भी कहा गया है। वेद, उपनिषद, पुराण, स्मृति आदि ग्रन्थों में गाय का विशद वर्णन है। गायत्राी, गंगा और वेदों में जिस प्रकार गायत्राी प्रतीक और गंगा स्थूल रूप में विश्वविज्ञान और मानव जीवन का प्रतिनिधित्व करती है, उसी प्रकार गाय का भी महत्व है। वेदों में गाय का ऊषा, मेघ, पृथ्वी आदि रूपों में वर्णन किया गया है। ऊषा की सुरम्य किरणें गाय के रोम कूपों की छटा हैं। मेघ रूप गाय से ही बिजली रूपी बछड़े पैदा होते हैं। इसका अत्यन्त सुन्दर रूपक व उपमानों के रूप में वर्णन है। अथर्व वेद में गाय को विश्वरूपा और सकल कामनाओं की पूर्ति करने वाली दिव्य शक्ति के रूप में चित्रित किया गया है। यथा -

”विश्वरूपा धेनुः कामदुघा मेऽस्तु“।

अर्थात् गाय विश्वरूपा है जो अखिल ब्रह्माण्ड का प्रतिनिधित्व करती है, वह हमारी सारी कामनाओं की पूर्ति करे।

भारतीय संस्कृति में आदिकाल से यज्ञादि कर्मों की प्रधानता रही है। इसीलिए भारत को कर्म भूमि भी कहा गया है। यज्ञ, पूजन, संस्कार आदि कर्मों में गाय के दूध, दही, घृत, गोमूत्रा व गोबर सहित पंचगव्य की प्रधानता रही है। पंचगव्य छिड़कने का अभिप्राय केवल धार्मिक मान्यता वश होने वाली शुद्धि ही नहीं, बल्कि उससे भौतिक दृष्टि से हानिकारक जीवाणु भी नष्ट हो जाते हैं। पंचगव्य पीने से शरीर के अन्दर के असाधारण रोग भी नष्ट हो जाते हैं। पंचगव्य और पंचामृत सचमुच अमृत के कार्य करते हैं। गाय की महत्ता तो इसी से जानी जाती है कि देव माता अदिति का नाम वेद में धेनु भी है। देवताओं को भी गोरूप माना गया है। गाय के दूध, और घी की आहुति को इड़ा कहा गया है। वाजसनेयी संहिता में गाय को चित्, मन, धी व दक्षिणा नाम से संबोधित किया गया है, और उसे हर प्रकार से पूज्य भी माना गया है। यथा -

चिदसि  मनांसि   धीरसि   दक्षिणासि

क्षत्रियासि यज्ञियास्यदितिरस्युभयतः शीष्र्णी।

सा नः  सुप्राची सुप्रतीच्येधि मित्रास्त्वा यदि

बध्रीतां   पूषाध्वनस्पात्विन्द्रायाध्यक्षाय।।

अनुत्वा  माता  मन्यतामनु  पिताऽनु

भ्राता  सगभ्योऽनु  सखा  सयूथ्यः।

सा देवि  देवमच्छेहीन्द्राय  सोमं रुद्रस्त्वा

वत्र्तयतु  स्वस्ति  सोमसखा  पुनरेहि।।

                  (यजुर्वेद 4/19-20)

अर्थात् हे सोम क्रयणी गौ! तुम चिदात्मा, बुद्धिस्वरूपा, मनस्वरूपा, दक्षिणारूप, दातादक्षिका, यज्ञयोग्या, यज्ञरूपा, देवमाता, पृथ्वी व स्वर्ग दोनों ओर सिर रखने वाली, दिव्य व भौतिक दोनों प्रकार के सुख देने वाली, पूर्व व पश्चिम मुखी, सूर्य दक्षिणपाद से तुम्हें बांधे, पूषा देवता इन्द्र की प्रसन्नता के लिए तुम्हारी रक्षा करें। सोम लाने में प्रवृत्त, पृथ्वी माता, स्वर्ग, दिशा, ईश भ्राता आदि तुम्हारी सहायता करंे।

अथर्व वेद में ”रूपायाघ्ने तेन यः“ कहकर पूजा की जाती है। महाभारत अनुशासन पर्व में श्रुति वाक्य उद्धृत करते हुए भीष्म कहते हैं -

गौर्मे माता वृषभः पिता मे, दिवं शर्म जगती मे प्रतिष्ठा।

ऊर्जाश्विन्यः उघ्र्व मेधाश्च यज्ञे, गर्भोऽमृतस्य जगतोऽस्य प्रतिष्ठा।

क्षिते रोहः प्रवहः शश्वदेव, प्राजापत्यः सर्वभित्यर्थवादः।।

अर्थात् गाय हमारी माता है, बैल हमारा पिता है,  यह हमें स्वर्ग दिलाती है और विश्व की प्रतिष्ठा है। सारी ऊर्जाओं से युक्त, यज्ञ में उसके घी आदि के द्वारा ऊर्जा व मेधा की वृद्धि होती है। गाय अमृत गर्भा है और विश्व की प्रतिष्ठा है।

वेदों में सूर्य की एक किरण का नाम कपिला है। इसीलिए कपिला गाय की महत्ता का शास्त्रों में वर्णन है। उसके दूध, गोबर, गोमूत्रा आदि में अन्य सामान्य गायों की अपेक्षा विशेष गुण पाये जाते हैं। हमारे शास्त्रों में यज्ञ में सोम की चर्चा है जो कपिला गाय के दूध से ही तैयार किया जाता था। कहा भी है-

यज्ञैराप्यायते सोमः सच गोषु प्रतिष्ठितः

इसीलिए महाभारत के अनुशासन पर्व में गाय के विषय में विशेष चर्चाएं हैं। यथा -

गावः प्रतिष्ठा भूतानां गावः स्वस्त्यनं महत्।

गावो लक्ष्म्यास्तथा मूलं गोषुदत्तं न नश्यति।।

स्वाहाकारवषट्कारौ गोषु नित्यं प्रतिष्ठितौ।

गावो यज्ञस्यहि फलं गोषु यज्ञाः प्रतिष्ठिताः।।

अर्थात् गायें सब प्राणियों की प्रतिष्ठा है, गायें महान उपास्य है। गायें स्वयं लक्ष्मी हैं, गायों की सेवा कभी निष्फल नहीं होती।

यज्ञ में प्रयुक्त होने वाले शब्द जिनसे देवताओं व पितरों को हवि सामग्री प्रदान की जाती है, वे स्वाहा व वषट्कार गायों में स्थायी रूप से स्थित हैं। गायें यज्ञ का फल हैं। सारे यज्ञ गाय में प्रतिष्ठित हैं।

स्पष्ट है, यज्ञस्थल गाय के गोबर से लीपकर पवित्रा होता है। गायों के दूध, दही, घृत, गोमूत्रा, गोबर से बने हुए पंचगव्य से स्थल को पवित्रा किया जाता है एवं यज्ञकर्ता उसे पीकर अपने को पवित्रा करतेे हैं। साथ ही पंचामृत सहित दूध, दही, घृत से देवताओं को स्नान कराया जाता है। जिससे आध्यात्मिक व भौतिक दोनों अर्थों की सिद्धि मानी जाती है। इसीलिए कहा गया है - ”गवां मूत्रा पुरीषस्य नो द्विषेत् कदाचन“ तथा गोमयेन सदा स्नायाद। गोकरीषे च संविशेत्। अर्थात् - गाय के मूत्रा और गोबर का त्याग कभी न करें। गोबर से स्नान व उसके पास बैठना दोनों श्रेयस्कर है।

”गोरितिपृथिव्या नामधेयम्“

‘गो’ शब्द पृथ्वी के अर्थ में भी प्रयुक्त होता है। इसका एक अर्थ इन्द्रिय भी है।

”अग्निर्हि देवताः सर्वाः सुवर्णश्च तदात्मकम्“

सारे देवता अग्नि स्वरूप हैं और स्वर्ण उनका आत्म स्वरूप है। गोतत्व का विचार पृथ्वी और इन्द्रियों के संबंध से है - औषधि-विज्ञान की भी यही मान्यता है। पृथ्वी को वसुन्धरा भी कहते हैं क्योंकि उसका मूलाधार तत्व स्वर्ण है, जिसे वेद में पित्त कहा गया है। सोना पृथ्वी का अग्नि तत्व है जबकि प्राणियों का अग्नि तत्व पित्त है। वैज्ञानिक प्रयोग से यह सिद्ध किया गया है कि पंचगव्य में जितनी पित्त की मात्रा पायी जाती है, उतनी दूसरे पदार्थ में नहीं है। यद्यपि पृथ्वी के कण-कण में स्वर्ण प्राप्त करना कठिन है किन्तु गौमाता से पित्त रूपी स्वर्ण सहज में प्राप्त किया जा सकता है। साथ ही यह भी कहा जाता है कि सूर्य की एक किरण भी ‘गो’ नाम की है। जिसका प्रभाव पृथ्वी तथा गाय पर समान भाव से पड़ता है। अतः पृथ्वी को गो रूप माना गया है। पौराणिक ग्रंथों  में जहां-तहां पृथ्वी का गो रूप में ही प्रकट होने का वर्णन हैं।