Submitted by Shanidham Gaushala on 13 Mar, 2019
प्राणी विज्ञान में स्पष्ट किया गया है कि गुरदों द्वारा रक्त का शोधन व छानने की प्रक्रिया संपन्न होती है और अवशिष्ट अंश मूत्रा के रूप में बाहर निलकता है। दूसरे शब्दों में हम यह भी कह सकते हैं कि मूत्रा गुर्दे द्वारा छना हुआ रक्त का अंश होता है। चूंकि रक्त में प्राण-शक्ति निहित है, उसमें स्वर्ण-क्षार, ताम्र अंश एवं लौह अंश का सम्मिश्रण होता है। अतः मूत्रा में भी आंशिक रूप में उक्त तत्व विद्यमान रहते हैं। इसी कारण जीव वैज्ञानिकों ने मूत्रा को रसायन रूप माना है। सब प्राणियों के मूत्रों में उनके अनुरूप ही रासायनिक गुण मौजूद रहते हैं, किंतु औषधि विज्ञान में गौमूत्रा को विशेष स्थान दिया गया है।
ऐसा क्यों? इस बिंदु पर गहराई से विचार करना आवश्यक प्रतीत होता है। इसकी स्पष्ट जानकारी के लिए पहले गाय के संबंध में पर्याप्त जानकारी प्राप्त करना आवश्यक है। अतः पहले गाय का परिचय वेद-शास्त्रों के आधार पर प्रस्तुत किया जा रहा है।
वेद-उपनिषदों में त्रायणी आदि शाखाओं एवं ताण्ड्य, जैमिनीय, शतपथ आदि ब्राह्मण ग्रन्थों में ‘‘गम्लृ गतौ’’ धातु गोवय तिरोभावे वैदिक धातु एवं ‘‘गौ शब्दे’’ धातु से गो शब्द प्राणवाची है। देवताओं ने गवा अर्थात् गो-प्राण एवं गो-प्राणी दोनों या तीनों लोकों से ‘वा’ अर्थात असुरों को भगा दिया। या यों कहें कि देवताओं ने गो-प्राण - प्राणी से राक्षसों को नष्ट कर दिया। वही असुरों या राक्षसी वृत्तियों का नाशक ‘गो’
शब्द है।
सारांश यह है कि जिस तत्व (प्राण) के द्वारा देवगण आसुर (राक्षसी वृत्ति) को नष्ट कर देते हैं, वही तत्त्व (प्राण) गो अर्थात् प्राण-प्राणी है। गो प्राण एवं उससे उत्पन्न गो-प्राणी (प्राण-प्राणी) दोनों गो है। जो आसुरी आचरण के प्रबल विरोधी हैं। क्योंकि ‘‘आदित्या वा गावः’’ ऐतरेय ब्राह्मण के अनुसार गो-प्राणी की उत्पत्ति सूर्य से है। इसीलिये गो - आदित्या कहलायी। आसुरी शक्ति की विनाशकारी जो शक्ति सूर्य में है, वही शक्ति गो-प्राणी में भी है। अतः गोमाता के श्वास, प्रश्वास, गौमूत्रा, गोमय, गोदुग्ध, गोदधि, गोघृत, एवं गोस्पर्श आदि में वे सभी शक्तियां सन्निहित हैं जो गो-प्राण एवं सूर्य में है।
इसी उद्देश्य से कि जिस गोमूत्रा में स्वयं गंगा निवास करती है, जिसमें सूर्य द्वारा मिलने वाली सारी शक्तियां पायी जाती हैं, उसे मात्रा देव कार्य ही नहीं, बल्कि उसमें सन्निहित जीवन-दायक सारे औषधीय गुणों को देखकर ही आयुर्वेद ने उसे अमृत व संजीवनी का दर्जा दिया है।
अखिल ब्रह्माण्ड नायक जगन्नियन्ता जगदीश्वर ने आत्मिक, बौद्धिक और शारीरिक गुणों से सम्पन्न मानव की रचना कर उसे इस सृष्टि को सुन्दर, सम्पन्न, सुसभ्य व आदर्श स्थापित करने के लिए और साथ ही अपना परम कल्याण करने के लिए भेजा है। किंतु दुख की बात है कि आज के अधिकांश मनुष्य स्वार्थी, भोगी व अहंकारी बन सभ्यता व संस्कृति के दुश्मन बन गये हैं। वे अपनी अहंमन्यता के कारण अमानवीय कार्य करने में भी संकोच नहीं करते और इसी में गौरव अनुभव करते हैं। मनुष्य की दरिंदगी व बेशर्मी की हद तो तब पार हो जाती है जब वह मानव मात्रा की माता, पालन-पोषण करने वाली, सर्वदेवमयी, सर्वकल्याणमयी गाय का भी अनादर करने लगता है और उसकी हत्या करने में भी संकोच नहीं करता। यही कारण है कि आज भौतिक सुखों से सम्पन्न होते हुए भी हम अशान्त व दिग्भ्रान्त हो दिनानुदिन पथ-भ्रष्ट होते जा रहे हैं। बात भी ठीक ही है, अपने सत्य-सनातन मार्ग से हटने पर मनुष्य का दिग्भ्रान्त व अशान्त होना स्वाभाविक ही है।
याद रहे, गायों की सेवा से ही गांव-नगर से दूर एकान्त जंगलों में रहकर ऋषि-महर्षियों ने वेद-वेदांग सहित चैदहों विद्याओं का स्वाध्याय-मनन व ध्यान-चिंतन कर सिर्फ अपना ही नहीं पूरे विश्व के कल्याण का मार्ग प्रशस्त किया था। उन्हीं ऋषि-महर्षियों के वचन, उपनिषद, आरण्यक, ब्राह्मण, पुराण और स्मृतिग्रंथ हैं, जिनसे पूरे विश्व ने मानवता का ज्ञान सीखा है।
ईशावास्योपनिषद में कहा है -
ईशावास्यमिदं सर्वं, यत्कि×िचत् जगत्यां जगत्।
तेनत्यक्तेन भु×जीथ मा गृधः कस्यश्विद्धनम्।।
अर्थात इस सृष्टि (संसार) में जो कुछ है, सब ईश्वरमय है। त्याग भाव से इसका भोग करें। किसी के धन का लोभ न करें।
किंतु आज इसका उलटा ही हो रहा है। इसका मुख्य कारण है, हमारी विवेक हीनता। क्योंकि विवेक नष्ट होते ही कर्तव्याकर्तव्य का ज्ञान नष्ट हो जाता है और उचित-अनुचित, न्याय-अन्याय में कोई भेद नहीं दीखता। इस विवेक हीनता से आज सबसे अधिक गाय ही प्रताड़ित हो रही है। क्योंकि वह
मूक व निरीह है।
प्राचीन समय में हमारे देश के राजा-महाराजा सैकड़ों, हजारों ही नहीं लाखों गायों की सेवा करते थे। समय-समय पर यज्ञादि के शुभ अवसरों पर हजारों गायों की सींग सोने से और खुर चांदी से मढवाकर उन्हें वस्त्रों से सुसज्जित कर दान करते थे। राजा जनक ने एक हजार गायें इसी प्रकार सुसज्जित कर याज्ञवल्क्य ऋषि को दान दिया था। ऐसे अनेकानेक प्रसंग प्राचीन ग्रंथों में उपलब्ध होते हैं।
महाभारत के विराट पर्व में यह आख्यान है कि पाण्डवों के अज्ञात वास के समय, जब कीचक मारा गया तो दुर्योधन ने युधिष्ठिर का पता लगाने के लिए भीष्म पितामह से उनके छिपने के संभावित स्थान के विषय में पूछा तो भीष्म पितामह ने
कहा -
गावश्च बहुलास्तत्रा न कृशा न च दुर्बलाः।
पयांसि दधिसर्पीषि रसवन्ति हि तानि च।।
अर्थात् जिस स्थान पर युधिष्ठिर रहते होंगे, वहां बहुत बड़ी संख्या में हृष्ट-पुष्ट बलवती, मधुर और स्वास्थ्यप्रद दूध देने वाली गायें होंगी।
प्राचीन काल में जिसके पास जितनी अधिक संख्या में गायें रहती थीं, वह उतना ही यशस्वी माना जाता था। श्रीमद्भागवत् में भगवान कृ्र्रष्ण के वर्णन प्रसंग में उल्लेख है:-
धेनूनां रुक्मशृंगीणां साध्वीनां मौक्तिकस्रजां।
पयस्वीनीनां गृष्टीनां सवत्सानां सुवाससाम्।।
ददौ रौप्यखुराग्राणां क्षौमाजिनतिलै सह।
अलंकृतेभ्यो विप्रेभ्यो बद्धं बद्धं दिने दिने।।
भगवान कृष्ण प्रतिदिन संध्या-तर्पण के बाद सद्यः प्रसूता (तुरंत बियायी हुई), दुधारू, सौम्य, शांत, स्वस्थ, बछड़ों वाली सोने की सींग और चांदी की खुर मढ़ी हुई और रेशमी वस्त्रों से सुससज्जित गाय को तिल के साथ ब्राह्मणों को दान करते थे।
चक्रवर्ती राजा दिलीप, जो एक गाय के बदले करोड़ों दुधारू गाय दे सकते थे, किंतु गोमाता के प्राण बचाने के लिए अपने शरीर को तुच्छ मांस पिंड के समान सिंह को समर्पित कर दिया था।
एक समय राजा जनक यमराज का स्थान संयमनापुरी के पास से विमान से जा रहे थे। वहां नरक की यन्त्राणा से दुखी हजारों नरक वासियों ने जोर से करुण क्रन्दन करते हुए
कहा - प्रभो, आप यहां से न जाएं, क्योंकि आपके विमान व आपकी हवा से हमें शान्ति व आनन्द का अनुभव हो रहा है। राजा जनक उनके करुण व दयाद्र्र स्वर को सुनकर अपने जीवन भर का पुण्य देकर उन्हें नरक से मुक्त करवा दिया।
बाद में महाराज जनक ने धर्मराज से पूछा - हे प्रभो, मैंने कौन सा ऐसा अपराध किया है कि मुझे नरक का दर्शन करना पड़ा है। यमराज ने कहा - राजन्! तुम्हारा सारा जीवन पुण्य कर्मों में बीता है। परंतु एक बार तुमने चरती हुई गायों को चरने में विघ्न डाला था। उसी के फलस्वरूप तुम्हें नरक देखने का अवसर मिला है।
एकदा गां चरन्तीनां वारयामास वै भवान्।
तेन पापविपाकेन निरयद्वारदर्शनम्।।
महाभारत में गाय का देवत्व व उसकी महत्ता के विषय में राजा युधिष्ठिर से कृष्णद्वैपायन वेदव्यास जी ने यहां तक कहा है - हे राजन्! प्यास से व्याकुल गाय समूह को जल पीने से रोकने वाले व्यक्ति ब्रह्मघाती कहलाते हैंे।
गोकुलस्यतृषार्तस्य जलान्ते वसुधाधिप।
उत्पादयति यो विघ्नं तमाहुब्र्रह्मघातकम्।।
और स्पष्ट किया है -
यद्गृहे दुःखिता गावः सयाति नरकं नरः।।
अर्थात् जिस गृहस्थ के यहां गायें दुःख पाती हैं, वह नरक को जाता है।
उक्त प्रमाणों से स्पष्ट है कि भारतीय संस्कृति का दृढ़ विश्वास है कि किसी भी परिस्थिति में गायों के प्रति सद्भाव रखने से ही सांसारिक व पारलौकिक उन्नति होती है। यही कारण है कि इस्लाम व ईसाई मत के प्रवर्तकों ने भी गोहत्या को अच्छा नहीं माना है।
गौमाता की महिमा से हमारे सारे धर्मग्रंथ भरे पड़े हैं। आयुर्वेद में तो गौमाता की महिमा और उनसे मिलने वाले पदार्थों को अमृत के समतुल्य बताया गया है। गाय के दूध, दही, घृत आदि को कौन कहें, गोमूत्रा व गोबर को भी त्रिविध तापों के हरण में उपयोगी बताया गया है। चाहे कोई भी रोग हो, गौमाता से उपलब्ध होने वाले दिव्यगुण संपन्न दूध, दही आदि पदार्थों से सम्यक उपचार हो जाता है। किसी रोग में गौमाता से प्राप्त उक्त पदार्थ सीधे उपयोग में लाये जाते हैं तो किसी में अनुपान व पथ्य रूप में प्रयुक्त होते हैं। इतना ही नहीं कर्मज व शाप से होने वाले रोग भी गोमाता के आशीर्वाद से दूर हो जाते हैं।