सर्वोपरि धर्म है गौ सेवा

Submitted by Shanidham Gaushala on 13 Mar, 2019

धर्म प्राण भारत में एक ऐसा भी स्वर्णिम युग था जब घर-घर में  की पूजा-आरती हुआ करती थी। अखिल ब्रह्माण्ड नामक परब्रह्म परमात्मा भी भगवान राम-कृष्ण के रूप में अवतार लेकर अपने हाथों से गौमाता की सेवा-शूश्रुषा किया करते थे। गौमाता  भगवान श्री कृष्ण की पूज्या और इष्ट देवी रही है। गौमाता की सेवा में वह नंगे पावों जंगल-जंगल में घूमते हुए गायें चराते और उन्हें पानी पिलाते थे।
वह सदैव गायों की सेवा में तन्मय रहते थे। प्रातः से सायंकाल तक भूख-प्यास को भुलाकर वह गर्मी, वर्षा, सर्दी की भी परवाह नहीं करते थे। और तो क्या गौमाता  की रक्षा के लिए उन्होंने गोवर्धन पर्वत को भी उठाने में देर नहीं की। सचमुच  इस पुण्य भूमि पर भगवान के अवतार लेने का प्रमुख कारण पूज्य गो-ब्राह्मण की सेवा व रक्षा करना ही रहा है। वास्तव में गौमाता  की रक्षा के बिना धर्म, सभ्यता, मानवता व संस्कृति की रक्षा नहीं हो सकती। ध्यान देने की बात है कि गौमाता  के आशीर्वाद से ही हमारे धर्म, वंश व संस्कृति की सम्यक प्रकार से रक्षा हो सकती है। गौमाता  की उपेक्षा के कारण ही आज हमारे धर्म और संस्कृति का दिनानुदिन क्षीण होता जा रहा है।
मित्रो, यह वही भारत भूमि है, जिसने अनेक चक्रवर्ती सम्राट सपूतों को पैदा किया है जो गौमाता  की स्वयं अपने हाथों से सेवा करने और उनकी रक्षा में बड़ी प्रसन्नता पूर्वक अपने प्राण तक न्योछावर करने में महान गर्व महसूस किया करते थे और अपने को धन्य मानते थे। उस समय हमारे देश में घर-घर गो-दुग्ध की नदियां बहती थी।
सोचने की बात है कि शास्त्रों में ऐसा क्यों कहा गया है? गाय तो एक सामान्य पशु है। फिर इसे इतना महिमा-मंडित क्यों किया गया है? वही दूध देने वाली भैंस भी है, वह भी पशु है। फिर उसे इतना महिमा-मंडित क्यों नहीं किया गया है? कारण स्पष्ट है। केवल दूध की वजह से गाय को पूज्या नहीं कहा जाता। इसका कारण अलौकिक है। गाय में तैंतीस करोड़ देवी-देवताओं का निवास है। गाय के अंग-प्रत्यंग में देवों का निवास होने की वजह से वह देवों का चलता-फिरता मंदिर भी कही जा सकती है। ब्रह्मा, विष्णु, महेश, आदिशक्ति रूपा महाकाली, महालक्ष्मी, महासरस्वती सहित सारे देवता, देवियां व योगिनियां ही नहीं, अपितु  सारे समुद्र, नदियां, सप्तद्वीप, पर्वत, सौरमण्डल एवं असुर सब विराजमान रहते हैं।
गौमाता  की इससे बढ़कर और क्या महत्ता हो सकती है कि उनके गुणों से प्रभावित हो स्वयं लक्ष्मी और गंगा जी भी बहुत अनुनय-विनय करने के बाद उनके गोबर और गोमूत्रा में स्थान प्राप्त करने में सफल हुई हैं। अर्थात् गौमाता  के गोबर में लक्ष्मी जी और गोमूत्रा में गंगा जी निवास करती हैं। वृन्दावन विहारी, गोवर्धनधारी गोपाल कृष्ण, गोविन्द की परमाराध्या गौमाता  सांसारिक सुख ही नहीं, भवसागर से पार लगाने वाली साक्षात् देवी होती हैं।
नित्य प्रातः काल उठकर गौमाता  का दर्शन व प्रणाम करने का सुअवसर प्राप्त करना सौभाग्य की बात होती है। गौमाता  को किसी प्रकार की यातना देना, मारना, अवहेलना करना, पैर से स्पर्श करना आदि बहुत बड़ा पाप है। शास्त्रा ने तो यहां तक कहा है कि ऐसे व्यक्ति की पीढ़ी दर पीढ़ी नरक की भागी
होती है।
गाय की सेवा स्वयं अपने घर पर गाय रखकर अथवा गोशालाओं में गाय की सेवा की व्यवस्था में सहभागी बनकर किया जा सकता है। आज मानव जीवन का हर क्षेत्रा राजनैतिक, व्यावसायिक, शैक्षणिक आदि सबके सब प्रतिस्पद्र्धापूर्ण व व्यस्तता से भरा हुआ है। अतः चाहते हुए भी सब लोग घर पर रखकर गायों की सेवा में सक्षम नहीं हो सकते। अतः वैसे लोग चाहें तो गोशालाओं में रहने वाली गायों के चारा-पानी की व्यवस्था में सहभागी बन आसानी से पुण्य लाभ कर सकते हैं।
पुराणों में अनेक प्रसंग आये हैं कि जब-जब राक्षसों के अत्याचार के कारण पृथ्वी पाप के भार से दबकर कांपने लगती है, पाप का भार सहन करने में असमर्थ हो जाती है, तब-तब पृथ्वी गाय का रूप धारण कर भगवान से अपने उद्धार की प्रार्थना करती है। राजा पृथु ने गाय रूपी पृथ्वी से अन्नादि का दोहन किया था। कलियुग के आगमन होने पर पृथ्वी माता उसके डर से गाय रूप धारण कर लंगड़ाती हुई भाग रही थी।
उक्त पौराणिक प्रसंगों से स्पष्ट है कि गाय केवल दूध देने वाली पशु ही नहीं, बल्कि माता रूप में सब प्रकार से मानव ही नहीं संसार के कल्याण की भावना रखती है। कहा भी है। ”जननात् जननी प्रोक्ता, धारणात् पृथ्वी स्मृता“ यानी जन्म देने वाली माता तो जन्म देने के बाद 2-4 वर्ष तक दूध पिलाती हुई शीत, गर्मी, वर्षा आदि से रक्षा सहित पालन-पोषण करती है। लेकिन बाद में मनुष्य पृथ्वी द्वारा उत्पन्न अनाज-फल आदि सारी वस्तुओं का उपभोग करता हुआ जल, वायु से संतुष्ट होता है। इसीलिए तो गाय को पृथ्वी, जल, वायु, तेज, दिशा आदि का नाम दिया गया है। जिस प्रकार माता निरन्तर अपनी संतान की भौतिक व आध्यात्मिक सुख की कामना करती है। उसी प्रकार गाय हमारी अर्थ, काम, धर्म और मोक्ष की कामना पूर्ण करती है। इसी सन्दर्भ में हम पुरुषार्थ चतुष्टय - धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष की सिद्धि में गौमाता  की सेवा से मिलने वाले आशीर्वाद के फलों पर बारी-बारी से विचार करें।
अर्थ
अर्थ का अभिप्राय धन होता है। शास्त्रा वचन है: ”धनं च गोधनं प्राहु“, अर्थात् उत्तम धन तो गाय है। जरा इस शास्त्रा वाक्य पर विचार करें। मानव जीवन में भौतिक सुख-समृद्धि की उपलब्धि धन से होती है। खाने-पीने के लिए अनाज, फल, दूध, दही, घी, मक्खन आदि, पहनने के लिए वस्त्रा व रहने के लिए मकान आदि मनुष्य की आवश्यक आवश्यकताएं मानी जाती हैं। गाय हमें जन्म से पीने के लिए दूध देती है जिसमें जीवन-तत्व के सारे प्रोटीन, विटामिन, लौहादि खनिज पर्याप्त रूप में विद्यमान रहते हैं। दूध से हमें दही, मक्खन व घी प्राप्त होते हैं। जीवन में अनाज अत्यावश्यक है, जो हमें कृषि से मिलता है। गाय के बछड़े ही बैल होते हैं जो कृषि के सर्व प्रथम अनिवार्य साधन होते हैं। बैलों से जमीन को जोतकर अनाज पैदा किया जाता है। गाय और बैलों के मूत्रा व गोबर खाद का काम करते हैं, जिससे जमीन की उर्वरा-शक्ति बढ़ती है। इन्हीं की सहायता से कृषि के द्वारा अन्न, फल, पुष्प आदि मिलते हैं। इन्हीं अनाज, फल, दूध, दही, घी आदि को बेचकर जीवन की जरूरत की अन्य चीजें भी प्राप्त की जाती हैं। अनाज, लकड़ी आदि एक जगह से दूसरी जगह ले जाने-लाने में बैलगाड़ियां सनातन काल से प्रयुक्त होती आ रही हैं।
इस प्रकार गाय के द्वारा प्राप्त दूध, घी, अनाज, फल, लकड़ी आदि को बेचकर इन्हीं से बनने वाले वस्त्रादि सामग्री एवं भवन इत्यादि बनाये जाते हैं। अर्थात धन के जितने भी साधन हैं, गाय हमें अनेक रूपों में देती है। संक्षेप में वास्तविकता तो यह है कि आधुनिक वैज्ञानिक जिन साधनों के उपयोग से आज स्वयंप्रभु बन रहे हैं। उन सबके मूल-स्रोत अनेक रूपों से गाय ही प्रदान करती है। कभी-कभी प्रत्यक्ष रूप से तो कभी परोक्ष रूप से। अतः यह अक्षरशः सत्य है कि अर्थ (धन) का सर्व प्रधान स्रोत गाय है। इसमें तर्क-वितर्क की कोई गुंजाइश नहीं है।
काम
काम का सामान्य अर्थ है - इच्छा, मनोनुकूल वस्तु की प्राप्ति। कामनाएं भी दो प्रकार की होती हैं - भौतिक व आध्यात्मिक। भौतिक कामनाएं असीमित हैं। फिर भी कुछ उचित व आवश्यक कामनाओं के संबंध में एक प्राचीन सूक्ति द्रष्टव्य है:
”अर्थागमो नित्यमरोगिता च, प्रिया च भार्या प्रिय वादिनी च।
वश्यश्च पुत्रोऽर्थकरी च विद्या, षड्जीव लोकेषु सुखानि राजन्।।“
अर्थात् हे राजन् ! हमेशा धन की प्राप्ति होते रहना, सदैव शारीरिक व मानसिक रूप से स्वस्थ रहना, सुंदर व प्रिय बोलने वाली पत्नी, सदा आज्ञा पालन करने वाला पुत्रा और ऐसी विद्या जिससे निरन्तर आमदनी होती रहे। जीवन में ये ही छह प्रकार के साधन सुखदायी होते हैं।
जाहिर है, हर व्यक्ति अपने जीवन में सुखदायी वस्तुओं की  उपलब्धि करना चाहता है। गौमाता  से प्रत्यक्ष व परोक्षरूप से मिलने वाले धन के विविध रूपों की चर्चा हम पहले ही अर्थ प्रकरण में कर चुके हैं। शारीरिक आरोग्यता में भी गाय से प्राप्त होने वाले पदार्थ, यथा - दूध, दही, घृत, गोमूत्रा व गोबर आदि बड़े ही उपयोगी होते हैं। उक्त पदार्थों से बनने वाले पंचगव्य में शारीरिक ही नहीं, मानसिक विकारों की शुद्धि की शक्तियां भी सन्निहित रहती हैं। इससे मन शुद्ध होता है और धार्मिक भावना भी जागृत होती है। गोमूत्रा व गोबर में कीटाणु नाशक तत्व भी पाये जाते हैं, जो रोग के कीटाणुओं को नष्ट कर शरीर को स्वस्थ रखते हैं।
मनोनुकूल पत्नी या संतानों की प्राप्ति, अथवा लाभकारी विद्या की उपलब्धि मुख्यतया दैवाधीन माना गया है। हालांकि दैवाधीन मिलने वाले फल हमारे अपने ही पूर्व कर्मों के फल होते हैं। अतः वर्तमान में अच्छे कर्म कर देवताओं को प्रसन्न करके मनोनुकूल सुखदायी फल भी प्राप्त किये जा सकते हैं। शास्त्रों के अनुसार गाय में सभी देवों का निवास है। अतः गोसेवा करके बड़ी सहजता से देवों की अनुकंपा हासिल की  जा सकती है। वृहत्पाराशर स्मृति कहती है -
”सर्वेदेवाः स्थिता देहे, सर्वदेवमयी हि गौः“
अर्थात सभी देवता गौमाता  के शरीर में स्थित हैं, इसीलिए गौमाता  सर्व देवमयी कहलाती हैं।
सारे देवता ब्रह्मा, विष्णु, महेश के साथ गाय के अंग-प्रत्यंगों में निवास करते हैं। मनोनुकूल पत्नी या पति प्राप्त करना, आज्ञाकारी पुत्रा की प्राप्ति व अर्थोपार्जन कराने वाली विद्या की प्राप्ति देवों के आशीर्वाद से ही होती है। लेकिन सब देवताओं की आराधना हम एक साथ नहीं कर पाते। साथ ही कर्मकाण्ड की विधि के अनुसार उपासना में कमी से फल प्राप्ति में रुकावट की संभावना रहती है। अतः गाय जो सब देवताओं की समष्टि स्वरूपा प्रत्यक्ष हेती है, उसकी सेवा मात्रा घास, भूसे, दाना-पानी आदि समय पर देते रहने और नित्य प्रणाम व आदर-सत्कार करने से ही हो जाती है। फलस्वरूप एक साथ सब देवता प्रसन्न होकर मनोवांछित कामनाओं की पूर्ति करा सकते हैं, जिनके अनेक उदाहरण शास्त्रों में भी मौजूद हैं।
राजा ऋतम्भर, राजा दिलीप, महर्षि च्यवन, महर्षि वशिष्ठ आदि द्वारा की गयी गोसेवा के प्रसंग  प्रशंसनीय व अनुकरणीय हैं। राजा ऋतम्भर की अनेक रानियां थीं। वृद्धावस्था तक उन्हें कोई सन्तान नहीं हुईं। सौभाग्यवश एक दिन जाबालि ऋषि उनके यहां पहुंचे। राजा ऋतम्भर ने आतुर भाव से स्वागत-सत्कार के बाद उनसे अपनी व्यथा सुनाई। महर्षि ने कहा - ”विष्णोः प्रसादो गोश्चापि शिवस्याप्यथवा पुनः।“
अर्थात् भगवान विष्णु, गाय अथवा भगवान शंकर की कृपा से पुत्रा की प्राप्ति होती है।
जाबालि ऋषि के इस प्रकार कहने पर राजा ऋतम्भर ने मुनि से पूछा कि प्रभो किस प्रकार गाय की सेवा करने से पुत्रा की प्राप्ति होती है? मुनि ने कहा - राजन्! गायों को जंगल में ले जाकर चराने व उनकी सेवा करने से पुत्रा की प्राप्ति होती है।
इस प्रकार राजा ऋतम्भर गायों को जंगल में ले जाकर सेवा करने लगे। दुर्भाग्यवश एक गाय को सिंह ने मार डाला। ऋतम्भर ने मुनि से इसका प्रायश्चित पूछा। मुनि ने उनके प्रायश्चित् स्वरूप भगवान राम की आराधना करने को कहा। राजा ऋतम्भर ने वैसा ही किया। भगवान राम ने कामधेनु की सेवा का आदेश दिया। कामधेनु की कृपा से राजा को सत्यवान नामक पुत्रा की प्राप्ति हुई।
गोसेवा से पुत्रा-रत्न की प्राप्ति का दूसरा पौराणिक प्रसंग राजा दिलीप का है। राजा दिलीप ने गुरु वशिष्ठ की आज्ञा से वशिष्ठ की गाय नन्दिनी (जो कामधेनु की पुत्राी थी) को लेकर पत्नी सुदक्षिणा के साथ जंगल में जाकर उसकी सेवा में तल्लीन हो गये। 21वें दिन नन्दिनी ने उनकी परीक्षा ली। नन्दिनी द्वारा उपस्थित माया का सिंह नन्दिनी को खाने के लिए उपस्थित हो गया। राजा दिलीप ने सिंह से प्रार्थना कर गाय के बदले अपना शरीर अर्पण कर दिया। माया रूपधारी सिंह गायब हो गया। नन्दिनी ने प्रसन्न होकर राजा को पुत्रा प्राप्ति का वरदान दिया। नन्दिनी ने कहा - ”मेरा दूध पी लो, पुत्रा होगा।“ राजा दिलीप नन्दिनी के साथ गुरु वशिष्ठ के पास पहुंचे और उनकी आज्ञा से नन्दिनी का दूध पीकर पुत्रा प्राप्त किया, जिसका नाम रघु रखा गया।
उसी रघु के प्रताप, बल व पौरुष के कारण उस वंश का नाम रघुवंश रखा गया। तीसरे पुरुष-अज, दशरथ के बाद रघुकुल भूषण, मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्री रामचन्द्र ने जन्म लेकर कुल को अमर बना दिया। इस प्रकार शास्त्रों में अनेक उदाहरण भरे पड़े हैं जिनसे गोसेवा से सभी मनोरथों की सिद्धि की बात पुष्ट होती है।
धर्म
‘धर्म’ शब्द के अनेक अर्थ होते हैं तथा अनेक भावों में इसका प्रयोग किया जाता है। यहां धर्म शब्द से आध्यात्मिक सुख का अभिप्राय है। प्रायः सब लोग इस बात से परिचित हैं कि किसी भी शुभ कार्य, अनुष्ठान-पूजन एवं पितरों के श्राद्ध आदि में गोदान आवश्यक होता है। गायों के दान का महत्व अतुलनीय है। शास्त्रों के अनुसार गोदान करने पर ही कार्य की सफलता मानी जाती है।
इतिहास साक्षी है कि पूर्व में राजा लोग यज्ञ की दक्षिणा में सैकड़ों-सहस्रों गायों की संींग सोने से मढ़वाकर, उन्हें वस्त्रों से सुसज्जित कर दान देते थे। यज्ञादि पूजन कार्य में स्थान को पवित्रा करने के लिए गाय के गोबर का प्रयोग किया जाता है और वहां पंचगव्य छिड़कते हैं और पंचगव्य पीते हैं। पूजन व यज्ञ में गाय के घी से ही दीपक जलाये जाते हैं। हवन में गाय का घी ही प्रयुक्त होता है।
मृत्यु काल के समय धर्मराज के पास जाने में वैतरणी नदी जो अत्यन्त भयावह पीप, खून व हड्डियों से भरी हुई है, उसे आसानी से पार करने के लिए वैतरणी नाम से गोदान किया जाता है। गाय की विशेषताओं की महत्ता तो इसी बात से स्पष्ट है कि गाय के पांव से उड़ने वाली धूल को लोग सिर में ही नहीं लगाते बल्कि वह समय जब गायें चरकर घर वापिस आती हैं, उस समय उनके पांव से उड़ने वाली धूल जब तक आकाश में रहती है, वह पूरा समय गोधुली शुभ काल माना जाता है, जो सारे शुभ कार्यों, खासकर लक्ष्मी-पूजन व विवाह-कार्य में उत्तम माना जाता है। इस प्रकार स्पष्ट है कि गाय धर्म का मुख्य साधन होती है।
मोक्ष  
मोक्ष शब्द के अर्थ हैं - मुक्ति, उद्धार, परित्राण, परम मुक्ति, मृत्यु या आवागमन मार्ग से छुटकारा। धर्म के प्रसंग में इस बात का उल्लेख हो चुका है कि धर्म का अन्तिम लक्ष्य मोक्ष ही है। सामान्यतया यज्ञानुष्ठान का अभिप्राय मोक्ष ही मान लिया जाता है। किन्तु दर्शनों के सिद्धान्त के अनुसार मोक्ष बिना ज्ञान के नहीं होता। वेद वाक्य है - ”ऋते ज्ञानान्नमुक्तिः।“ अर्थात् ज्ञान के बिना मुक्ति नहीं मिलती। वही ज्ञान जिसे ब्रह्मज्ञान कहते हैं। वह ज्ञान सच्चे सद्गुरु की अनन्य कृपा और ईश्वर की अनन्य भक्ति के बिना प्राप्त नहीं हो सकता। 
गाय सर्वदेव मयी है। सारे देवताओं का निवास स्थान गाय में है। गाय की अनन्य सेवा से ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति सुलभ है। शास्त्रों में इसके कई उदाहरण हैं।
जाबाला का पुत्रा सत्यकाम था। कुछ बड़े होने पर वह गौतम ऋषि के पास आकर ब्रह्मचर्य पूर्वक सेवा की आज्ञा मांगी। ऋषि ने उसे 400 चार सौ गायें दींे और कहा कि इन्हें दूर जंगल में ले जाओ। इनकी सेवा करो। इनकी संतानों समेत जब संख्या एक हजार हो जाये तो वापिस ले आना। ब्रह्मचारी सत्यकाम गायों को लेकर जंगल में उनकी सेवा में तल्लीन हो गया। जब गायों की संख्या एक हजार हो गयी तो उन्हें लेकर वापिस गुरु आश्रम लौटने लगा।
गायों की सेवा से सन्तुष्ट उनमें से एक वृषभ (बैल) ने सत्यकाम को ब्रह्मज्ञान के एक चरण का ज्ञान कराया और कहा कि अब अगले चरण का अग्निदेव तुम्हें ज्ञान देंगे। रास्ते में एक जगह उसे रुकना पड़ा। ठण्ड से बचने के लिए वह अग्नि जलाकर तापने लगा। अग्निदेव ने प्रकट होकर उसे ब्रह्मज्ञान के दूसरे चरण का ज्ञान करा दिया और कहा कि ज्ञान का तीसरा चरण तुम्हें हंस बतायेगा। दूसरे दिन सत्यकाम किसी सरोवर के तट पर रुका। रात्रि में हंस उसके समक्ष आया और ब्रह्मज्ञान के तीसरे चरण का ज्ञान करा दिया और कहा कि ब्रह्मज्ञान के चैथे चरण का ज्ञान तुझे जल कुक्कुट प्रदान करेगा। तीसरे दिन उसने रास्ते में एक बड़ के पेड़ के नीचे निवास किया। रात्रि में वृक्ष से नीचे आकर एक जल कुक्कुट (जलमुर्गा) ने कहा - वत्स, मैं तुझे ब्रह्मज्ञान के चतुर्थ चरण का उपदेश देता हूं जिसे आयतन स्वरूप कहते हैं।
चैथे दिन सत्यकाम गायों को लेकर जब ऋषि गौतम के पास पहुंचे तो गुरु ने उसकी मुखाकृति देखकर कहा - वत्स! तुम ब्रह्मज्ञानी स्वरूप मालूम पड़ते हो। सत्यकाम ने कहा - आचार्य प्रभो, मैंने मानवेतरो से ज्ञान प्राप्त किया है। आचार्य प्रभो, भावपूर्ण रूप से उपदेश दे। आचार्य ने कहा - वही ब्रह्मज्ञान है। फिर उन्होंने स्वयं भी उपदेश देकर उसे सन्तुष्ट किया। शास्त्रों में इस प्रकार अनेक उदाहरण मौजूद हैं।
उक्त बातों से स्पष्ट होता है कि गौमाता  की सेवा से सेवकों को ऐहिक और पारलौकिक दोनों तरह के सुख आसानी से प्राप्त होते हैं। इसमें कोई सन्देह नहीं।
मित्रो, गौमाता  की सेवा से मनुष्य को चारों पुरुषार्थों की उपलब्धि में सहायता मिलती है। अर्थ, काम, धर्म व मोक्ष - ये ही चार परुषार्थ हैं जिनके लिए मनुष्य आजीवन लगा रहता है। इस प्रकार गौमाता  की सेवा करके बड़ी आसानी से मनुष्य अपने जीवन लक्ष्य का संधान कर अपने आपको कृतार्थ कर सकता है।