आदर्श गौशाला एवं गौपालन विधि

Submitted by Shanidham Gaushala on 13 Mar, 2019

गौशाला को हमारे शास्त्रों में देवमंदिर का दर्जा दिया गया है। जिस प्रकार देवमंदिर में देवताओं व देवियों की पूजा होती है, गौशालाओं में सर्वदेवमयी गौमाता की सेवा की जाती है। वेदों में भी गाय को देवी लक्ष्मी का प्रतिरूप कहा गया है।

यथा - 

‘तां म आवहजातवेदो लक्ष्मीमनपगामिनी

यस्यां हिरण्यंविन्देयं गमश्वपुरुषानहम्।’

अर्थात हे जातवेद (अग्निदेव), आप उस लक्ष्मी को मेरे पास बुलाओं जिससे स्वर्ण, गौ, अश्व (घोड़े) एवं पुत्रा-पौत्रा प्राप्त करूं।

उक्त वैदिक मंत्रा में गाय, घोड़े आदि को लक्ष्मी रूप माना गया है। भारतीय संस्कृति में वैदिक काल से ही देवालय-निर्माण, देव-प्रतिष्ठा, उनकी पूजा-आराधना की परम्परा जारी है।

मन्दिर बनाना, देवता का पूजन करना, देवताओं के लिए अन्य आवश्यक उपचार करना आदि श्रेय (आध्यात्मिक सुख) एवं प्रेय (सांसारिक सुख) की प्राप्ति के कारण होते हैं। आध्यात्मिक दृष्टि से देवमंदिर बनाकर, उसमें भगवान की प्रतिष्ठा कर पूजन आदि की व्यवस्था की परिपाटी सनातन काल से चली आ रही है। उसी प्रकार गौशालाओं की परिपाटी भी अति प्राचीन है। दोनों में यद्यपि आध्यात्मिक श्रेय की प्रधानता है, फिर भी कुछ अन्तर है। आधुनिक परिवेश में बड़े-बड़े मान्य मंदिरों को छोड़कर अन्य सामान्य मन्दिरों की स्थिति दयनीय है, जो प्रत्यक्ष है। कारण भी लोगों के सामने हैं। मंदिरों में पूजा का फल पूर्णतः धार्मिक माना जाता है जब कि गौशालाओं में गोसेवा करने से पारलौकिक फल के साथ इहलौकिक फल भी मिलते हैं। धनोपार्जन के उद्देश्य से गोपालन का काम अब भी जारी है। पूर्णतः व्यावसायिक दृष्टिकोण से की जाने वाली गोसेवा का फल गौ-सेवकों को आध्यात्मिक क्षेत्रा में भी अग्रसर होने की प्रेरणा देता है। कारण स्पष्ट है कि गौशालाओं से आध्यात्मिक लाभ तो है ही, साथ ही गौसेवा से प्राप्त होने वाले गोबर, गोमूत्रा, दूध, दही, घृत आदि से प्रत्यक्ष लाभ भी प्रर्याप्त मात्रा में उपलब्ध होता है। किंतु मन्दिरों में आय के स्रोत्र कम होते हैं।  

यह भी स्पष्ट है कि देवमन्दिर में तो एक प्रमुख देवता की प्रतिष्ठा होती है। उनके अंग रूप कुछ और देवताओं की भी प्रतिष्ठा कर उनकी पूजा-आरती की जाती है। गाय को सर्वदेवमयी, विश्व की माता कहा गया है। गाय में ब्रह्मा, विष्णु व महेश सहित सारे देवता, दिव्य योनियां व असुर-गन्धर्वों का निवास है। गाय अखिल विश्व की जननी है। ‘गावो विश्वस्य मातरः’ शास्त्रा के अनुसार - केवल गाय की सेवा से अखिल ब्रह्माण्ड की सेवा मानी जाती है। गौशाला में तो सैकड़ों, हजारों गायों की सेवा होती हैं। 

गौ पूजन से आध्यात्मिक उपलब्धि तो होती ही है, साथ ही सांसारिक सुख सौमनस्य की पूर्ति भी होती रहती है। यदि गौशाला बनाकर उसकी उचित व्यवस्था की जाये तो निश्चित ही मानव का इहलोक और परलोक दोनों सुधर जाते हैं। मानव जन्म-मरण के बन्धन से मुक्त होकर गोलोक की उपलब्धि करने में भी सफल होता है। 

वेद, ब्राह्मण, आरण्यक, उपनिषद, पुराण एवं स्मृति आदि प्राचीन ग्रंथों में गो-महिमा का गान करते हुए गौशाला निर्माण व उसके रख-रखाव एवं अन्य आवश्यक व्यवस्थाओं का पर्याप्त वर्णन पढ़ने को मिलता है।

गौशाला निर्माण व व्यवस्था

स्कन्द पुराण में गौशाला निर्माण के विषय में यह उल्लेख (वर्णन) है कि गाय का निवास-स्थल समतल भूमि पर होना चाहिए। उसके लिए मकान दृढ़ और लम्बा-चैड़ा होना चाहिए। साथ ही उसकी जमीन भी कोमल होनी चाहिए। गोशाला के अन्दर स्तम्भ पर्याप्त व ऐसे हों जिनमें गायों को अंग खुजलाने में सहूलियत हो और खुजलाने से घाव न हो जाये। गौशाला में ठंडी, गर्मी, आंधी व तेजहवा से बचाव की पर्याप्त व्यवस्था रखना आवश्यक है। गर्मी व बरसात में मच्छरों से बचाने के लिए, मच्छर नाशक औषधियों या धुएं का प्रबन्ध भी आवश्यक है। गायों के पीने एवं नहाने के लिए स्वच्छ पानी का समुचित प्रबन्ध होना चाहिए। वहां के कूड़े-कचरे को अलग डालने की भी व्यवस्था होनी चाहिए। वहां की सारी व्यवस्था को सुचारु रूप से संपादित करने के लिए वफादार व जबाबदेह गौ-सेवकों व व्यवस्थापक का रहना अनिवार्य है। शास्त्रा में वर्णन है कि जो इस प्रकार का गौसेवा-सदन बनाकर दान करता है। वह सौभाग्यशाली होता है। वह स्वस्थ रहते हुए सम्राट पद तक प्राप्त करता है।

महर्षि पराशर कृत ‘कृषि-संग्रह’ में भी गौशाला निर्माण का वर्णन है। गौशाला के आस-पास गन्दगी, झाड़ू, मूसल व जूठन नहीं रखना चाहिए। गोशाला में बकरियों के बांधने, उसमें थूकने, पेशाब करने या कीचड़ आदि डालने से गोशाला की पवित्राता नष्ट होती है एवं उसमें मच्छरों का भी प्रकोप बढ़ता है। पवित्रा गोशाला में स्वयं लक्ष्मी निवास करती हैं। जिस गौशाला में संध्या समय दीपक नहीं जलाया जाता, वहां से लक्ष्मी चली जाती हैं और गायें उदास होकर रोने लगती हैं।

गोशाला सुदृढा यस्य शुचिर्गोमयवर्जिता।

तस्य वाहा विवर्धन्ते पोषणैरपिवर्जिताः।।

शकृन्मूत्रा विलिप्तांगा वाहा यत्रादिने-दिने।

निःसरन्ति गवां स्थानात् तत्राकिं पोषणादिभिः।।

और स्पष्ट है -

संध्याकाले च गोस्थाने दीपो यत्रा न दीयते।

स्थानं तत्कमलाहीनं वीक्ष्य क्रन्दति गोगणाः।।

गायों की सेवा 

देवी भागवत में गौसेवा के संबंध में यह निदेश है कि गायों को मच्छरों से बचाने के लिए धुएं की व्यवस्था होनी चाहिए। गाय को दूहते समय उसके बछड़े का भी ध्यान रखते हुए एक या दो थन का दूध उसके लिए छोड़ देना चाहिए। गाय के बच्चे मर जाने पर यदि गाय दूध नहीं देती है तो दूध के लिए जबर्दस्ती करना वर्जित है। ऐसा भी देखा जाता है कि लोग बछड़े के मर जाने पर उसकी खाल में भूसे आदि भरकर बछड़े का रूप बनाकर गाय के सामने रख कर दूहते हैं। शास्त्रा ने इसे पूर्ण रूप से निषेध किया है।

ब्रह्मपुराण, विष्णुधर्मोत्तर पुराण, वृषकल्पद्रुम आदि ग्रंथों में गोशाला एवं गोसेवा को महत्वपूर्ण मानकर बहुत विस्तार से वर्णन किया गया है। गाय को प्रतिदिन, महीने के अनुसार नमक, घी और दूसरी गाय का दूध पिलाना चाहिए। उन्हें स्वच्छ हरी घास व पौष्टिक चारा देना चाहिये। रात में गोशाला में दीपक अवश्य जलावें। गाय सदा पूज्या, पोष्या, पालनीया एवं दान करने लायक होती है। गोदान से भी अधिक गाय की सेवा का फल है। स्वप्न में भी गाय को ताड़ने, उस पर क्रोध करने या उसका अहित करने का भाव नहीं लाना चाहिए।

गौ-चिकित्सा

अपनी भारतीय संस्कृति में प्रायः सभी कार्यों के लिए दो उपाय बतलाये गये हैं - प्रथम दैवी और दूसरा लौकिक। रोगों के उपचार में भी दैवी व लौकिक दोनों से काम लिया जाता है। रुग्ण गायों के उपचार के लिए दोनों प्रकार के उपचारों का वर्णन शास्त्रों में मौजूद हैं। अग्नि पुराण में तो लौकिक उपचार की कई विधियों का भी उल्लेख है। अथर्व वेद में गाय के कल्याण की भावना से देव-पूजन और हवन आदि कई प्रकार के अनुष्ठानों का उल्लेख है। ‘‘गोभिलीय गृह्मसूत्रा’’ में गाय को हृष्ट-पुष्ट रखने के लिए नान्दीमुख श्राद्ध करने का निर्देश है। मालिक को तीन दिनों तक उपवास रखकर गायों के वन जाते समय प्रातःकाल और लौटते समय सायंकाल मंत्रों द्वारा उनका आवाहन किया जाना चाहिये। जाते समय यह प्रार्थना की

जाती है -

इमा मे विश्वतोवीर्यो भव इन्द्रश्च रक्षतम्।

पूषात्वं पर्यावत्र्तया नष्टा आयन्तु नो गृहान्।।

हे विश्व के सर्वाधिक पराक्रमी भव और इन्द्र! हमारी इन गायों की रक्षा करें। हे पूषा देवी! आप बिना किसी विघ्न-बाधा के सुख पूर्वक इन्हें घर लौटा लाना।

इसी तरह शाम को लौटते समय -

इमामे  मधुमतीर्मह्यमनष्टाः  पयसासह।

गावः आजनस्य मातर इद्वेमाः सन्तु भूयसीः।।

मधुर व स्वादिष्ट दूध देने वाली गायें बिना किसी क्षति-हानि के दूध सहित लौट जाएं। हमारे यहां घृत देने वाली गायें बहुत अधिक हों।

प्रसव (बिआते) समय गाय की प्रसव पीड़ा निवारणार्थ ‘विलयनहोम’ का विधान है। आहुति देने वाला मंत्रा इस

प्रकार है -

संग्रहण संगृहाण योजनाः पशवो मम।

पूषैषा शर्मयच्छत् यथा जीवन्तो अभ्ययात् स्वाहा।।

अर्थात हे संग्रहण (नामक देव)! मेरे यहां जो पशु पैदा हुए हैं, उनकी आप रक्षा करें। हे पूषादेव! आप इनका सब प्रकार से कल्याण करें, जिससे ये सब सुख पूर्वक रहें।

साथ ही शास्त्रों में गो यज्ञ की भी चर्चा है। जिसमें गाय के कल्याणार्थ हवन, वृषभ पूजन, ब्राह्मण भोजन करवाने का निदेश है। गाय को धूप या लू लग जाने पर लौहचूर्ण, अन्न व घृत मिलाकर चीवर होम करने का भी विधान बतलाया गया है।

गायों के कुछ लौकिक उपचार भी अग्निपुराण के (अ. 292) में बताएं गये हैं। यथा -

गायों के सींगो में यदि कोई रोग हो तो जटामासी, बला, सोंठ एवं सेंधा नमक सबको मिलाकर काढ़ा बनाकर उसके साथ तेल में शहद मिलाकर लगाने से लाभ होता है।

कर्णशूल में मजीठ, हींग एवं सेंधा नमक के साथ पकाया हुआ तेल यदि डाला जाये तो शीघ्र लाभ होता है।

दांतों की पीड़ा में बेल की जड़, चिचड़ा, धव, पाटला और कौरेया सबको बारीक पीसकर लोशन बनाकर दांतों पर लेप करने से लाभ होता है। साथ ही दवा के साथ घृत का भी प्रयोग करें तो अधिक लाभ होता है।

जिह्ना रोग में सेंधा नमक का प्रयोग किया जाता है।

गले के रोग में सोंठ, हल्दी, दारूहल्दी और त्रिफला सब मिलाकर प्रयोग किया जाता है।

हृदयशूल, बस्तिशूल, वातरोग तथा क्षयरोग में लाभ हेतु घी में त्रिफला मिलाकर पिलाना चाहिए।

सभी प्रकार के उदर रोग, कांस-श्वास में सोंठ एवं भारंगी का प्रयोग लाभदायक होता है।

चोट लगने पर तेल, घी व हरताल गर्मकर लगावें तथा टूटे अंग पर सेंधा नमक और ककुन्दी लगाना चाहिये।

इस प्रकार प्राचीन ग्रंथों में गायांे के अनेक रोगों की चिकित्सा का वर्णन है। यदि उड़द, तिल, गेहूं, दूध और घी सबका लड्डू बनाकर यदि बछड़े को खिलाया जाये तो बछड़े शीघ्र हृष्ट-पुष्ट हो जाते हैं।      

कौटिल्य के अर्थशास्त्रा में गो-अध्यक्ष प्रकरण में गोसेवा हेतु सरकारी व्यवस्था के विषय में विशद वर्णन पढ़ने को मिलता है, जिसमें गायों की देखभाल में गाय का पालक-गोपालक, भैंस का पालक पिण्डारक, दूहने वाला दोहक, दूध, दही मथने वाला मन्थक, जंगलों में हिंसक प्राणियों से रक्षा करने वाला लुब्धक एवं वेतनोपग्राही, करप्रतिकर, भग्नोत्सृष्टक, भागानुप्रविष्टक आदि सेवकों के अनेक भेद-प्रभेदों का वर्णन भी मिलता है।

उक्त बातों से स्पष्ट होता है कि हमारे प्राचीन ग्रंथों में गौशाला को देवालय का दर्जा देते हुए उसमें रहने वाली गायों की सेवा को सर्वोच्च प्राथमिकता देने का विधान है। गायों के खान-पान व विश्राम में किसी प्रकार का व्यवधान नहीं पड़ना चाहिए। उनके किसी प्रकार से अस्वस्थ होने पर उनके उपचार की व्यवस्था में देर नहीं करनी चाहिए। गायों की सुख-सुविधाओं का पूरा ध्यान रखना ही गायों की सच्ची उपासना है। जब सेवा रूपी उपासना से गोशाला रूपी देवालय में मौजूद सर्वदेवमयी गौमाता प्रसन्न होती हैं तो उनके आशीर्वाद से गौसेवकों के सारे मनोरथों की सिद्धि हो जाती है।