क्यों गौ माता का पालन हर घर में होना चाहिए? – Ghar mein Gau Mata palan ke labh

Submitted by Shanidham Gaushala on 14 Jun, 2019

सनातन धर्म में गाय को माता का स्थान दिया गया है क्यूंकि जैसे एक माता अपने पुत्र का पालन- पौषण करती है ठीक उसी प्रकार गौमाता सम्पूर्ण विश्व का भरण-पौषण करती है गाय हमारी स्था की भी प्रतीक है क्यूंकि कि गाय में समस्त देवता निवास करते हैं व प्रकृति का दुलार भी य की सेवा करने से ही मिलता है। भगवान शिव का वाहन नंदी (बैल), भगवान इंद्र के पास समस्त मनोकामनाओं को पूर्ण करने वाली कामधेनू गाय , भगवान श्री कृष्ण का गौपालक होना एवं अन्य देवियों के मातृवत गुणों को गाय में देखना भी गाय को पूज्य बनाते हैं। भविष्य पुराण के अनुसार गौमाता के पृष्ठदेश यानि पीठ में स्वयं ब्रह्माजी निवास करते हैं तो गले में श्रीहरी: विराजते हैं। भगवान शिव मुख में विराजते हैं तो मध्य भाग में सभी देवताओं का निवास है। गऊ माता के रोम रोम में महर्षियों का ठिकाना है तो पूंछ का स्थान अनंत नागो का है, खूरों में सारे पर्वत समाये हुए हैं तो गौमूत्र में गंगादि पवित्र नदियाँ, गौमय में जहां स्वयं लक्ष्मीजी निवास करती तथा गौ माता के नेत्रों में सूर्य और चंद्र का वास है। कुल मिलाकर गाय को पृथ्वी, ब्राह्मण और देव का प्रतीक माना जाता है। प्राचीन समय में गौ दान को सबसे सबसे बड़ा दान माना जाता था और गौ हत्या को महापाप। यही कारण है कि वैदिक काल से ही हिंदू धर्म के मानने वाले गाय की पूजा करते आ रहे हैं। गाय की पूजा के लिये गोपाष्टमी का त्यौहार भी भारत भर में मनाया जाता है। गौ महिमा इस संसार में गऊमाता एक अमूल्य और कल्याणप्रद रत्न है। सूर्य भगवान के उदय होने पर उनकी ‘ज्योति’, ‘आयु’ और ‘गो’–ये तीन किरणें स्थावर-जंगम (चराचर) सभी प्राणियों में कम या अधिक मात्रा में प्रविष्ट होती हैं; परन्तु ‘गो’ नाम की किरण गऊमाता में ही अधिक मात्रा में प्रविष्ट होती है इसीलिए इनको ‘गौ’ नाम से पुकारते हैं। ‘गो’ नामक सूर्य किरण की पृथ्वी स्थावरमूर्ति (अचलरूप) और गऊ जंगममूर्ति (चलायमानरूप) है। गौ और पृथ्वी दोनों ही परस्पर एक-दूसरे की सहायिका और सहचरी हैं। मृत्युलोक की आधारशक्ति ‘पृथ्वी’ है और देवलोक की आधारशक्ति ‘गऊमाता’ है। पृथ्वी को ‘भूलोक’ कहते हैं और गाय को ‘गोलोक’ कहते हैं। भूलोक नीचे है और गोलोक ऊपर है। जिस प्रकार मनुष्यों के मल-मूत्रादि अनुचित आचरणों को पृथ्वीमाता सप्रेम सहन करती है, उसी प्रकार गौमाता भी मनुष्यों के जीवन का आधार होते हुए उनके वाहन, ताड़न आदि अनुचित आचरणों को सहन करती है। इसीलिए वेदों में पृथ्वी और गौ के लिए ‘मही (क्षमाशील) शब्द का प्रयोग किया गया है। मनुष्यों में भी जो सहनशील होते हैं, वे महान माने जाते हैं। संसार में पृथ्वी व गाय से अधिक क्षमावान और कोई नहीं है। शास्त्रों में गौ को सर्वदेवमयी और सर्वतीर्थमयी कहा गया है। इसलिए गौमाता के दर्शन से समस्त देवताओं के दर्शन और समस्त तीर्थों की यात्रा करने का पुण्य प्राप्त हो जाता है। समस्त प्राणियों को धारण करने के लिए पृथ्वी ही गौमाता का रूप धारण करती है। जब-जब पृथ्वी पर असुरों का भार बढ़ता है, तब-तब वह देवताओं के साथ भगवान विष्णु की शरण में गोरूपधारण करके जाती है। गौ, विप्र, वेद, सती, सत्यवादी, निर्लोभी और दानी–इन सात महाशक्तियों के बल पर ही पृथ्वी टिकी हुई है पर इनमें गौ का ही प्रथम स्थान है। गऊ शब्द स्त्रीलिंग और पुल्लिंग दोनों में प्रयुक्त होता है। गाय रूप से विष्णुपत्नी,भूदेवी का रूप होने से माता और गो वृषभरूप से धर्म का रूप होने से सबका पिता है। गौ धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चारो पुरुषार्थों की धात्री होने के कारण कामधेनु है शास्त्रों में गाय को साक्षात् देवी माना है। उनके रोम-रोम में देवताओं का निवास है। गोमूत्र में गंगाजी का व गोबर में लक्ष्मीजी का निवास है। भवसागर से पार लगाने वाली गऊमाता की सेवा करने से व इनकी कृपा से ही गौलोक की प्राप्ति हो जाती है। अथर्ववेद, उपनिषदों, महाभारत, रामायण, पुराण व स्मृतियां गऊमाता की महिमा से भरे हुए हैं। गाय को ‘सुरभि’, ‘कामधेनु’, ‘अर्च्या’, ‘यज्ञपदी’, ‘कल्याणी’, ‘इज्या’, ‘बहुला’, ‘कामदुघा’, ‘विश्व की आयु’, ‘रुद्रों की माता’ व ‘वसुओं की पुत्री कहा गया है। सर्वदेवमयी गोमाता को वेदों में ‘अघ्न्या’(अवध्या) बतलाया है। श्रुति का वचन है– ‘मा गामनागामदितिं वधिष्ट।‘ (ऋक्संहिता ८।१०१।१५)। इसका अर्थ है कि गाय निरपराधिनी है, निर्दोष है तथा पीड़ा पहुंचाने योग्य नहीं है और अखण्डनीय है। अत: इसकी किसी भी प्रकार हिंसा न करो, तनिक भी कष्ट न पहुंचाओ। गाय सदा पूजनीय है। गऊमाता को त्याग की मूर्ति कहा गया है; क्योंकि उसके सभी अंग-प्रत्यंग दूसरे के उपयोग में आते हैं। इस महागुण से गौ ‘सर्वोत्तम माता’ कही गयी है। तृणों के आहार पर जीवन धारणकर गाय मानव के लिए  लौकिक अमृतमय दूध प्रदान करती है। गोमाता हमें प्रतिधुक् (ताजा दुग्ध), श्रृत (गरम दुग्ध), शर  (मक्खन निकाला हुआ दुग्ध), दही, मट्ठा, घृत, खीस (इन्नर, पनीर, छैना), नवनीत और मक्खन–ये नव प्रकार के अमृतमय भोज्य पदार्थ देती है जिन्हें खाकर हम आरोग्य, बल, बुद्धि, ओज और शारीरिक बल प्राप्त करते हैं। अपने दूध से, पुत्र से और मरने पर अपने चमड़े-हड्डियों से भी सेवा करने वाली और पवित्रता की मूर्ति–गोबर से घर को और गोमूत्र द्वारा शरीर को पवित्र करती है। जगद्गुरु वीरभद्र शिवाचार्यजी महाराज के शब्दों में–हैं गोमय-गोमूत्र शुद्धतम इनके पावन और पवित्र। जिनके सेवन से होते हैं दूर भूरि भव-रोग विचित्र।। यज्ञस्वरूपा गाय भगवान ने विश्व के पालनार्थ यज्ञपुरुष की प्रधान सहायिका के रूप में गोशक्ति का सृजन किया है। इस यज्ञ की प्रक्रिया को सशक्त बनाने वाली रसदात्री गोमाता है। क्योंकि यज्ञ की सम्पूर्ण क्रियाओं में गाय द्वारा प्रदत्त दुग्ध, दही, घृत, पायस आदि द्रव्य अनिवार्य होते हैं। हविष्य को धारण करने की अग्निशक्ति का कारण भी गोघृत ही है। गौओं को साक्षात् यज्ञरूप बतलाया है। इनके बिना यज्ञ किसी भी तरह नहीं हो सकता। देवगण मन्त्रों के अधीन हैं, मन्त्र ब्राह्मणों के अधीन हैं और ब्राह्मणों को भी हव्य-कव्य, पंचगव्यादि गौ के द्वारा ही प्राप्त होती हैं। महर्षि पाराशर के अनुसार ब्रह्माजी ने एक ही कुल के दो भाग कर दिए–एक भाग गाय और एक भाग ब्राह्मण। ब्राह्मणों में मन्त्र प्रतिष्ठित हैं और गायों में हविष्य प्रतिष्ठित है। अत: गायों से ही सारे यज्ञों की प्रतिष्ठा है। स्कन्दपुराण में ब्रह्मा, विष्णु व महेश के द्वारा कामधेनु की स्तुति की गई है– त्वं माता सर्वदेवानां त्वं च यज्ञस्य कारणम्। त्वं तीर्थं सर्वतीर्थानां नमस्तेऽस्तु सदानघे।।अर्थात् हे अनघे ! तुम समस्त देवों की जननी तथा यज्ञ की कारणरूपा हो और समस्त तीर्थों की महातीर्थ हो, तुमको सदैव नमस्कार है। वेद हमारे ज्ञान के आदिस्त्रोत हैं। वे हमें देवताओं को प्रसन्न करने की विद्या–यज्ञानुष्ठान का पाठ पढ़ाते हैं। संसारचक्र का पालन करने वाले देवताओं की प्रसन्नता ही हमारी सुख-समृद्धि का साधन है। अत: यज्ञ हमारी लौकिक उन्नति और कल्याण दोनों के लिए आवश्यक हैं। यज्ञ से हम जो चाहें प्राप्त कर सकते हैं। इस यज्ञचक्र को चलाने के लिए ही वेद, अग्नि, गौ एवं ब्राह्मणों की सृष्टि हुई। वेदों में यज्ञानुष्ठान की विधि बताई गई है एवं ब्राह्मणों के द्वारा यह विधि सम्पन्न होती है। अग्नि के द्वारा आहुतियां देवताओं को पहुंचाई जाती हैं और गौ से हमें देवताओं को अर्पण करने योग्य हवि प्राप्त होता है। इसलिए हमारे शास्त्रों में गौ को ‘हविर्दुघा’ (हवि देने वाली) कहा गया है। गोघृत देवताओं का परम हवि है और यज्ञ के लिए भूमि को जोतकर तैयार करने एवं गेहूं, चावल, जौ, तिल आदि हविष्यान्न पैदा करने का काम बैलों (गाय के बछड़ों) द्वारा किया जाता है। यही नहीं, यज्ञभूमि को शुद्ध व परिष्कृत करने के लिए उस पर गोमूत्र छिड़का जाता है और गोबर से लीपा जाता है तथा गोबर के कंडों से ही यज्ञाग्नि प्रज्जवलित की जाती है। गोमय से लीपे जाने पर पृथ्वी पवित्र यज्ञभूमि बन जाती है और वहां से सारे भूत-प्रेत और अन्य तामसिक पदार्थ दूर हो जाते हैं। यज्ञानुष्ठान से पूर्व प्रत्येक यजमान की देहशुद्धि के लिए पंचगव्य पीना होता है जो गाय के ही दूध, दही, घी, गोमूत्र व गोमय (गोबर) से तैयार होता है। जो पाप किसी प्रायश्चित से दूर नहीं होते, वे गोमूत्र के साथ अन्य चार गव्य पदार्थ (दूध, दही, घी, गोमय) से युक्त होकर पंचगव्य रूप में हमारे अस्थि, मन, प्राण और आत्मा में स्थित पाप समूहों को नष्ट कर देते हैं। ‘पंचगव्यप्राशनं महापातकनाशनम्।’ देवताओं को आहुति पहुंचाने के लिए हमारे यहां दो ही मार्ग माने गये हैं–अग्नि और ब्राह्मणों का मुख। दूध में पकाये गये चावल जिन्हें आधुनिक भाषा में खीर कहते हैं और संस्कृत में परमान्न (सर्वश्रेष्ठ भोजन)–यही देवताओं और ब्राह्मणों को विशेष प्रिय होती है। घी को सर्वश्रेष्ठ रसायन माना गया है; गोमूत्र सब जलों में श्रेष्ठ है; गोरस सब रसों में श्रेष्ठ है। गाय सच्ची श्रीस्वरूपा (श्रीमती) ऊँ नमो गोभ्य:  मतीभ्य: सौरभेयीभ्य एव च। नमो ब्रह्मसुताभ्यश्वच पवित्राभ्यो नमो नम:।। इस श्लोक में गाय को श्रीमती कहा गया है। लक्ष्मीजी को चंचला कहा जाता है, वह लाख प्रयत्न करने पर भी स्थिर नहीं रहतीं। किन्तु गौओं में और यहां तक कि गोमय में इष्ट-तुष्टमयी लक्ष्मीजी का शाश्वत निवास है इसलिए गौ को सच्ची श्रीमती कहा गया है। सच्ची श्रीमती का अर्थ है कि गोसेवा से जो श्री प्राप्त होती है उसमें सद्-बुद्धि, सरस्वती, समस्त मंगल, सभी सद्-गुण, सभी ऐश्वर्य, परस्पर सौहार्द्र, सौजन्य, कीर्ति, लज्जा और शान्ति–इन सबका समावेश रहता है। शास्त्रों में वर्णित है कि स्वप्न में काली, उजली या किसी भी वर्ण की गाय का दर्शन हो जाए तो मनुष्य के समस्त कष्ट नष्ट हो जाते हैं फिर प्रत्यक्ष गोभक्ति के चमत्कार का क्या कहना? यहां तक कि साक्षात् ब्रह्म भी गोलोक का परित्याग कर भारतभूमि पर गोकुल (गोधन) का बाहुल्य देखकर अत्यन्त लावण्यमय रूप धरकर उनकी सेवा के लिए अवतरित हुए। श्रीमद्भागवत में  शुकदेवजी कहते है कि भगवान गोविन्द स्वयं अपनी समृद्धि, रूपलावण्य एवं ज्ञान-वैभव को देखकर चकित हो जाते थे (३।२।१२)। श्रीकृष्ण को भी आश्चर्य होता था कि सभी प्रकार के ऐश्वर्य, ज्ञान, बल, ऋषि-मुनि, भक्त, राजागण व देवी-देवताओं का सर्वस्व समर्पण–ये सब मेरे पास एक ही साथ कैसे आ गए। वास्तव में यह सब उनकी गोसेवा का ही फल था। भगवान श्रीकृष्ण ने अपने लोक को ही गोलोक नाम दिया। जब श्रीकृष्ण का जन्म हुआ तो नन्दबाबा ने कई लाख गौएं दान में दीं। नन्दबाबा को उनकी यह ‘नन्द’ की पदवी तथा श्रीराधा के पिता को ‘वृषभानुजी’ की पदवी गौओं की संख्या के ही कारण है। गर्गसंहिता के गोलोक-खण्ड में बताया गया है कि जो ग्वालों के साथ नौ लाख गायों का पालन करे, उसे ‘नन्द’ कहते हैं और पांच लाख गायों के पालक को ’उपनन्द’ कहते हैं। ‘वृषभानु’ उसे कहते हैं जो दस लाख गायों का पालन करता है। गायें जहां स्वयं तपोमय हैं वहां अपनी सेवा करने वाले को भी तपोमय बना देती हैं। यज्ञ और दान का तो मुख्य स्तम्भ ही है गाय। अत: हमारी यही कामना है– गावो ममाग्रतो नित्यं गाव: पृष्ठत एव च।
गावो मे सर्वतश्चैव गवां मध्ये वसाम्यहम्।। ‘गौएं मेरे आगे रहें। गौएं मेरे पीछे रहें। गौएं मेरे चारों ओर रहें और मैं गौओं के बीच में रहूं।’ गाय माता विश्व की एक अमूल्य निधि है, गौ माता की रचना स्वयं भगवान ने मनुष्यों के कल्याणार्थ आशीर्वाद रूप से की है। अत: इस पृथ्वी पर गोमाता मनुष्यों के लिए भगवान का प्रसाद है। वैदिक संस्कृति संसार की सर्वोत्तम संस्कृति है वेदो ने गाय का इतना महिमामंडन किया है की गाय को गौमाता कहने या मानने का विचार ही लोगो को वेद के गाय के प्रति श्रद्धा भाव से मिला है। अथर्ववेद (सा. 4/21/5) में कहा गया है की – गावो भागो गाव इन्द्रो मे- अर्थात गाय ही भाग्य और गाय ही मेरा ऐश्वर्य है इसके अगले मन्त्र मे अथर्ववेद में आया है। भद्रं गृहं कृणुभ भद्रवाचो ब्रहद्वो वय उच्यते सभासु अर्थात मधुर बोली वाली गाय घर को कल्याणमय बना देती है। भगवान के द्वारा निर्मित इस महाप्रसाद, अमृतरूपी गोदुग्ध का पान कर मानव ही नहीं अपितु देवगण भी तृप्त हो रहे है। इसलिए गाय के दूध को अमृत कहा गया है। गौमाता साक्षात् अमृत का खजाना है सभी देवता गौमाता के अमृतरूपी गोदुग्ध का पान करने के लिए गौमाता के शरीर में सदैव निवास करते हैं। ऋग्वेद में गाय को “अदिति” कहा गया है। “दिति” नाम नाश का है और “अदिति” अविनाशी अमृतत्व का नाम है। अत: गाय को ‘अदिति’ कहकर वेद ने अमृतत्व का प्रतीक बतलाया है।

हर घर में कम से कम एक गाय आवश्य पालनी चाहिए और वो भी नहीं होता तो दस घर मिलकर एक गाय का पालन करो।
o आजकल के लोग वो भी नहीं कर सकते तो हर घर में गौ सेवा के लिए दानपात्र लगाएँ और रोज कुछ ना कुछ धन उसमें डाल दिया करिए। हर महीने के अंत में किसी भी गौ सेवा संस्थान को ये दान दिया करें।
o रोज नारे लगाते हैं हम, गौ माता की रक्षा हो …. अधर्म का नाश हो पर गौ सेवा के नाम पर सब पीछे हट जाते हैं… भगवान ने हमें सब कुछ दिया है फिर भी हम एक गाय नहीं पाल सकते? क्यों?
o कोशिश कीजिए कि पैकेट का दूध घर में नहीं लें और दुध वाले से गौ माता का ही दूध खरीदें। घर घर देशी घी दही मक्खन आना चाहिए, पैकेट का नहीं। ऐसा करने से गौवंश बढ़ेगा।
o यज्ञों के दौरान गायों को चढ़ाव और विनिमय में अत्यंत महत्व था। किसी व्यक्ति के धन का आकलन उसकी गायों की संख्या द्वारा किया जाता था।
o भगवान श्रीकृष्ण गोपियों के घर कोई धन दौलत नहीं चुराने गए। वो माखन चुराने जाया करते और गौ माता के लिए श्री जी ने अपने आप को माखनचोर कहलाना भी योग्य समझा।
o भगवान गोपियों के घरों में उनको भगाने के बाद भी आते थे, क्योंकि वहां गौ माता रहती थी। पर अगर गौ माता नहीं होती तो भगवान गोपियों के बुलाने पर भी घर में नहीं आते।
o गौ पालन में सहयोगी लोगों का भी पालन भगवान ही करते हैं बशर्ते वे अपने को प्रेम से, ईमानदारी से और भक्ति से इस कार्य में जोड़े।
o आज के समय के भाई माता बहनों की बात सुन लीजिए – कुत्ते की पूँछ सहलाना, उसको सैम्पू से नहलाना, उसकी पोटी साफ करना, उसके साथ किस्सिंग … आप जितना कुत्ते पर खर्च करते हो उसका 25 प्रतिशत ईमानदारी से गौ सेवा में लगा दीजिए।
o महाभारत के अनुशासन में कहा गया है कि गाय जहाँ बैठकर निर्भयतापूर्वक सांस लेती है, उस स्थान के समस्त पापों को खींच लेती है। इस प्रकार गौ के साथ साथ उस भूमि पर रहने वाले समस्त जीव पाप रहित होकर मृत्यु उपरान्त स्वर्गगामी होते हैं।
o जिस घर के वायव्य कोण में अथवा कहीं भी गाय का पालन किया जाता है, उस स्थान पर घर के समस्त वास्तुदोष स्वतः ही दूर हो जाते हैं।
o जिस घर में बछड़े सहित गाय रहती है, वहां सर्वार्थ कल्याण होता है तथा उस स्थान के समस्त वास्तु दोष दब जाते हैं।
o जिस घर में गाय के लिए पहली रोटी निकाली जाती है तथा गाय को दी जाती है वहां के निवासी हमेशा सुखी रहते हैं।
o जिस भूमि पर गाय को रविवार के दिन स्नान कराया जाता है, वहाँ लक्ष्मी का वास होता है तथा लक्ष्मी स्थिर रहती है, वहाँ के निवासी स्वस्थ एवं चैन से रहते हैं।
o जिस घर में गौमूत्र का यदा कदा छिड़काव किया जाता हो, वह घर लक्ष्मी से युक्त होता है।
o घर के किसी भी भाग में हमेशा गोबर लेपन करने से लक्ष्मी उस घर में सतत बनी रहती है।
o गाय को स्नान कराने वाले को कोटि-कोटि पुण्य प्राप्त होता है।
o आजकल लोग गौ माता को कुछ भी बचा-खुचा खाना देते हैं। याद रहे कि आपके घर के सामने गौ माता जो भी खाती है वो आपके पूर्वजों को मिलता है।
o गाय के दूध में स्वर्ण तत्व पाये जाते हैं। यह तत्व माँ के दूध के अतिरिक्त दुनिया के किसी भी पदार्थ में नहीं है।
o गाय के गोबर से प्रति वर्ष 4500 लीटर बायोगैस मिल सकता है।
o गाय द्वारा छोड़ी गयी शवास से सभी अद्रश्य एवं हानिकारक बैक्टेरिया मर जाते हैं। ये अंदर आक्सीजन लेती है लेकिन बाहर छोड़ती है जिसमें की प्रमाण ज्यादा है।
o गाय की सींग चन्द्रमा से आने वाली ऊर्जा को अवशोकशित कर शरीर को देते हैं। प्रतिदिन गाय के सींग पर हाथ फेरने से गुस्सा नहीं आता है।